kahi ankahi
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निश्चित ही ये भीड़ थी
जो उस दिन
इंडिया गेट और दिल्ली के
रामलीला मैदान में थी
उस भीड़ में पढ़े -लिखे भी थे
और अनपढ़ भी थे
professionals भी थे और
छात्र भी थे
वो महिलाएं भी थीं जो
अपना चूल्हा -चौका खत्म करके
आई थीं
और सुइट -पैंट पहने
‘मैडम’ भी थीं
मगर ये वो भीड़ नहीं थी
जो रैली में थैली लेकर जाती है
ये वो भीड़ भी नहीं थी जो
‘देशी’ पीकर जिंदाबाद -मुर्दाबाद
कहती है
इस भीड़ ने कोई बस नहीं तोड़ी
इस भीड़ ने कोई रेल नहीं रोकी
ये खुद को खुद से ही संभालती
एक दूजे के साथ
हाथ मिलाती भीड़ थी
ये भीड़ एक उम्मीद जगती है
भारत का भविष्य दिखाती है
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