kahi ankahi
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भारत में जर , जोरू और ज़मीन की लड़ाइयाँ बहुत ही प्रसिद्ध रही हैं | आज के दौर में भी लगभग हर रोज़ समाचार पत्रों में जमीन के बदले मिलने वाले मुआवज़े को लेकर घर घर टूट रहे हैं | अपना ही खून अपना दुश्मन हो चला है | लगता ही नहीं कि रिश्तों की कोई अहमियत बाकी रह गई है | भाई , भाई के खून का प्यासा हो चला है | बेटा अपने माँ और पिता को अपनी जमीन के बदले मिले मुआवज़े का एक हिस्सेदार समझकर उसे दुनिया से विदा कर देता है | ये कौन सी प्रगति है हिंदुस्तान की , ये कैसे संस्कार हैं जो अपने ही खून के प्यासे हुए जाते हैं ? इन्हीं सब परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए एक कविता कहता हूँ !
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