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ये तो अच्छा है कि इंसान मरता तो है

kahi ankahi
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आज हम भारत के लोग अपने आप को इक्कीसवीं सदी में पहुँचने पर गौरवान्वित महसूस करते हैं और करना भी चाहिए क्यूंकि हम आज उन गिने चुने देशों में हैं जो अन्तरिक्ष में अपनी पहुँच और दबदबा रखते हैं ! हम आज विश्व भर में सूचना तकनीक के माहिर माने जाते हैं ! रक्षा के मामलों में हम सबसे बड़े खरीद दारों में हैं , हम सबसे बड़े लोकतंत्र हैं ! हम सबसे ज्यादा इंजिनियर और डॉक्टर विश्व को दे रहे हैं ! और भी बहुत कुछ है कहने को , अपनी तारीफ करने को ! ये तस्वीर का एक पहलु है जो कभी कभी खुश होने के लिए देख लेना चाहिए जैसे अपनी पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए फॅमिली अल्बम खोल कर बैठ जाते हैं हम ! हम में से ज्यादातर लोग आज़ादी के बाद की पैदाइश हैं इसलिए हमने कभी ये महसूस ही नहीं किया कि हमारे शहीदों ने हमें आज़ाद कराने के लिए क्या क्या सहा होगा ! हमने उनकी सहादत को संजोकर रखना चाहिए था और अपने पूर्वजों की विरासत को और भी ज्यादा संभाल कर रखना चाहिए था लेकिन आज हम उनके कार्यों को दरकिनार करते चले जा रहे हैं ! भारत वर्ष दुनिया भर में अपने हुनर मंदों का कितना भी ढिंढोरा पीटे , सच तो ये है कि भारतीय समाज आज वो नहीं रह गया है जैसा हमने कभी सोचा था , पढ़ा था ! समाज में हर और अराजकता , मारपीट , हिंसा , दबंगई दिखाई देती है ! आज ऐसा लगता है कि हम पाषाण काल से भी बीते हुए जमाने में पहुँच रहे हैं जहां आदमी को भी अपना भोजन बना लिया जाता था ! गाडी टकरा गयी , हत्या कर दी ! भैंस खोल ली , हत्या कर दी ! लड़की किसी और लड़के के साथ देख ली , हत्या कर दी ! ये कौन सा समाज है , ये कैसी व्यवस्था है ! हम पढ़े लिखे तो हैं किन्तु समझदार शायद नहीं हैं ! राजनीती ने इस तरह का माहौल बना रखा है कि जो राजनीती में है बस वही दबंग है ! सफ़ेद कपडे पहनकर चोर , राजनीती में आ जाता है ! सफ़ेद कपडे पहनकर समाज का सबसे गिरा हुआ आदमी राजनीती का चोला पहन लेता है और वो हमारा नीति निर्माता बन जाता है ! एक अनपढ़ आदमी , सफ़ेद कपड़ों में एक पढ़े लिखे CMO को पकड़कर मारता है ? क्यूँ ? कौन इस देश के लिए , इस समाज के लिए ज्यादा जरूरी है ? वो सफ़ेद पोश या वो जो लोगों को जीवन दे रहा है , जिसने अपनी रातों की नींद खराब करके अपने आप को डॉक्टर बनाया है ? ये देश किस दिशा में जा रहा है ? कोई शायद जवाब न दे , जो जवाब देने लायक हैं वो ही चुप बैर्ठे हैं तो कोई क्या कह सकता है ! सफेदपोश हमारे लिए बने थे , हमारे काम के लिए थे लेकिन अब क्या वो यही कर रहे हैं ? शायद ये हमारी ही गलती है कि हम ही उन्हें धर्म और जाति के नाम पर उन्हें सर पर बिठा लेते हैं और वो ताकत वर होते चले जाते हैं ! जिन्हें देश के भले के लिए काम करना था आज वो अपहरण , बलात्कार , चोरी , गुंडई , सब कुछ करवा रहे हैं ! लूट रहे हैं देश को भी और हमें भी !

श्री शिव मंगल सिंह सुमन की कविता से कुछ पंक्तियाँ देता हूँ :

घर-आंगन में आग लग रही
सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर- छाजन ।
तन जलता है , मन जलता है
जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बंधन ।
दूर बैठकर ताप रहा है,
आग लगानेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला

गली , मोहल्ले और चौराहों से जब सांय सांय करती स्कोर्पियो निकलती है तब बिलकुल भी ऐसा नहीं लगता की ये हमारे जन प्रतिनिधि हैं , बल्कि ये आवाज़ डरावनी और भयानक लगती है ! उसमें और उसके साथ चलने वाली 5-6 और गाड़ियों में बैठे इन जन प्रतिनिधियों के गुंडे ऐसे लगता है जैसे ये किसी को मारने आये हैं ! क्या ऐसे ही होने चाहिए थे हमारे जन प्रतिनिधी ? ये एक घिनोना रूप है महान कहे जाने वाले हमारे लोकतंत्र का ! हमने इन जन प्रतिनिधियों का व्यवहार देखा है ! राह चलती लड़कियों को सरेआम उठा ले जाना और नाबालिग तक को भी न छोड़ा , ये कैसा और कौन सा लोकतंत्र है भाई ? ये कैसी शासन व्यवस्था है जहां जन प्रतिनिधि ही अपनी जनता की आबरू से खेल रहा है ? ये होगा ही ! क्योंकि जब सर्वोच्च पद पर बैठा व्यक्ति ही भ्रष्ट होता है , तब वो कोई उदाहरन प्रस्तुत नहीं कर पता और उसकी प्रजा को ये सब कुछ झेलना होता है ! ध्रतराष्ट्र के पुत्रमोह ने महाभारत करा दिया ! ये न जाने कौन सी मजबूरी है की देश का सबसे शक्तिशाली परिवार भी अपने ऊपर दाग लगने से वंचित नहीं है और जब कोई व्यक्ति उनसे जवाब की उम्मीद करता है तो उसे सबक सिखाने की , उसकी औकात बताने की बात करी जाने लगती है ! ऐसे इज्ज़त बढाती नहीं , बट्टा लग जाता है ! कल तक जो चमचे , भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपना दामन पाक साफ़ दिखाते थे वो कुछ लाख रुपयों की खातिर अपना ईमान बेचने पर उतारू हैं ! कैसी व्याख्या है ये ? मुस्लिम धर्म में हराम के पैसे को न कहा जाता है लेकिन यहाँ तो लोग , औरों को दिखने के लिए रोज़े भी रखते हैं और लूट का माल भी पचा जाते हैं ! क्या मुस्लिम धर्म गुरुओं को ये दिखाई नहीं देता की वो ऐसे लोगों को धर्म से निकाल बाहर करें ?

मैं नहीं जानता की आगे क्या होगा , किन्तु आज के हालत ऐसे हैं की हर बात राजनीती से तय होती हुई लगती है ! जबकि शुरू में राजनीती मात्र एक कार्य था , एक माध्यम था लोगों की सेवा करने का ! जब शासन बिगड़ता है , कानून अपना काम नहीं कर पता तब अराजकता फैलती है ! और मुझे नहीं लगता की हम इस स्थति से बहुत दूर हैं ! एक महीने में 17 -18 बलात्कार , एक ही राज्य में ! क्या कहना चाहते हैं हम ? क्या दिखाना चाहते हैं हम ? हमने आधुनिकता के नाम पर महेश भट्ट जैसे नामुरादों को औरत का जिस्म दिखाने की छोट तो दे दी किन्तु उनके विषय में एक बार भी नहीं सोचा जो इस हैवानियत को झेल रहे हैं ! कानून आज सिर्फ अँधा ही नहीं , बहरा भी है , गूंगा भी है या ये कहूं की अपाहिज है तो गलत नहीं होगा ! कानून सच में ऐसा नहीं है किन्तु हमारे नीति निर्माताओं ने उसे पकड़कर , उसके पर इस तरह से क़तर दिए हैं की उसका पालन कराने वाले भी , चाटुकारों की तरह सत्ता के गलियारों में पड़े दिखाई देते हैं ! कानून उनकी जेब में है नहीं रखा गया है , केवल पद और पैसे की लालसा. में ! इन्होने अपने मकसद के लिए कानून को गिरवी रखने में कोई कोताही नहीं बरती इसी का परिणाम है की आज तुच्छ से तुच्छ गली का नेता भी कानून के रखवालों को गाली देकर और धक्का देकर बात करता है ! जिस कानून की इज्ज़त होनी चाहिए थी , जिस कानून की धाक होनी चाहिए थी , डर होना चाहिए था वाही कानून राजनेताओं के यहाँ गुलामी की याद दिलाता पानी भर रहा है !

ये रजनीगंधा मौसम की बेला है
गधों के घर बंदूकों का मेला है
मैं भारत की जनता का संबोधन हूँ
आंसूं के विकारों का उद्बोधन हूँ
मैं अव्धर्मी परंपरा का चारा हूँ
आज़ादी की पीड़ा का उच्चारण हूँ
इसीलिए दरबारों का दर्पण दिखलाने निकला हूँ
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ

इंग्लैंड के एक प्रधानमंत्री ने कहा था की भारत में इतनी शक्ति नहीं की वो कभी अपने पैरों पर खड़ा हो सके ! शक्ति तो हमने ले ली किन्तु हम अपनी मर्यादाएं भूलते चले गए , हम अपने संस्कार भूलते चले गए ! अगर मैं बहुत गलत नहीं हूँ तो आज की हालत से अंदाज़ा तो सिर्फ यही की कोई चमत्कार ही इस देश के भविष्य को सुधार सकता है ! जहां आम जनता रह रह के आंसू गिराती हो , जहां 40 करोड़ लोग दो वक्त के लिए खाना तलाशते फिरते हों , वो देश कैसे और कब अपने पैरों पर खड़ा हो सकेगा , मैं नहीं जानता ! आज हमें सच में ऐसे लोगों की दरकार है जो निर्भीक होकर इस देश के भविष्य को सुधार सकें ! चाटुकारों से मुक्ति मिले तो शायद कोई बात बने ! इसी सन्दर्भ में डॉ। हरिओम पंवार के शब्द लिखता हूँ :

मैं दरबारों के लिए अभिनन्दन गीत नहीं गाता
मैं ताजों के के लिए समर्पण गीत नहीं गाता
गौण भले हो जाऊं मैं मौन नहीं मैं हो सकता
पुत्र मोह में शास्त्र त्यागकर गुरु ड्रोन नहीं हो सकता मैं
कितने ही पहरे बिठा दो मेरी क्रुद्ध निगाहों पर
मैं दिल्ली से बात करूँगा भीड़ भरे चौराहों पर
मैंने भू पर रश्मि रथी के घोडा रुकते देखा है
पांच तमंचों के आगे दिल्ली को झुकाते देखा है
मैं दिल्ली का वंसज दिल्ली को दर्पण दिखलाता हूँ

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