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​​दर्द की भी हद होती है

kahi ankahi
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छत्तीसगढ़ में जो कुछ हुआ , ह्रदय विदारक , निंदनीय और दुखी करने वाला वाकया था , मैं जानता हूँ कि हम सबको इस बात का दुःख है लेकिन क्या हमने कभी ये सोचने की जरुरत महसूस करी है की क्यों कोई अपना घर बार छोड़कर , अपने बीवी बच्चों से दूर जंगलों में हर पल मौत की लड़ाई में लड़ने को मजबूर हो जाता है ? आदमी जब भूखा होता है तो उसे कुछ नज़र नहीं आता ! लेकिन हमने अपने विकास और अपने भौतिक सुख की खातिर जिनको उजाड़ दिया , जिनको बेघर कर दिया , जिनसे उनकी रोटी और रोज़ी छीन ली , क्या हमारी आँखों से उनके लिए कभी आंसुओं की दो बूँद गिरीं ? क्या कभी किसी ने उनके लिए कोई राज्य या भारत बंद कराया ? इसी विषय पर कुछ कहने की कोशिश करी है :


मैं अपने एहसासों की एक कहानी लिखता हूँ
टूटे -फूटे वस्त्रों में छुपती जवानी लिखता हूँ
मेरे नायक हैं वो भूखे -नंगे लोग
मैं उनकी आँखों का पानी लिखता हूँ !!


इतिहास नहीं बन पाते वो
अपना दर्द नहीं कह पाते वो
जुल्म की काली करतूतें
मैं अपनी जुबानी लिखता हूँ !!


सरकारों को उनकी ​याद नहीं
उनको भी इनसे आस नहीं
ऊँची -ऊँची दीवारों के पीछे की
मैं बातें सयानी लिखता हूँ !!


उनके सपनों में कोई ताज नहीं
उनके पास कहने को , लम्बे चौड़े अल्फाज़ नहीं
जले हुए खेत खलिहानों पर
मैं जुल्मों की निशानी लिखता हूँ !!


नफरत की कोई दीवार नहीं
दिल से कोई बीमार नहीं
आँखों से दर्द का जो समंदर बहता है
मैं उन अश्कों की रवानी लिखता हूँ !!

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